रामप्रसाद बिस्मिल एक क्रांतिकारी लेखक और एक आदर्श देशभक्त || Ramprasad Bismil in Hindi
रामप्रसाद बिस्मिल एक क्रांतिकारी लेखक और एक आदर्श देशभक्त
भारत की पावन भूमि अतीत से ही वीर सपूतों की भूमि रही है । इसकी मिट्टी में ऐसी आन और शान छुपी पड़ी है , जो एक बार माथे पर तिलक लगा लेता है , उस पर जादू – सा प्रभाव चल पड़ता है और अपने लहू का एक एक कतरा देश भक्ति की वेदी पर बहाने के लिए तैयार हो जाता है । ऐसे ही वीर थे Ramprasad Bismil , जिन्होंने चाणक्य की तरह ब्रिटिश राज को खत्म करने की प्रतिज्ञा की थी । घर छोड़ने के बाद उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा ।
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रामप्रसाद बिस्मिल |
रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून , 1897 ई ० में उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर नामक स्थान पर एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ । इनके पिता का नाम मुरलीधर तथा माता का नाम मूलमती था । बचपन से ही Ramprasad Bismil पतन की राह पर चलने लगे । पांचवी में वे दो बार अनुत्तीर्ण हुए । कुसंगति का दुष्प्रभाव इतना बढ़ गया कि अपने जीवन को सुधारना टेढ़ी खीर बन गया । गन्दे उपन्यासों ने उनके चरित्र का हरण कर लिया था । वे 50-60 सिगरेट रोजाना पीते थे । पिता ने विचार किया कि उन्हें किसी काम धन्धे में लगाया जाए ।
रामप्रसाद भी अपने जीवन से तंग आ गए थे । उन्हें अपने जीवन में अन्धकार ही अन्धकार दिखाई दे रहा था । परन्तु विधि की लीला और ही थी । उनका सम्पर्क आर्य समाज के बड़े संन्यासी स्वामी सोमदेव जी सरस्वती से हुआ । स्वामी के प्रवचन व उपदेशों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा और रामप्रसाद नित्य आर्य समाज के सत्संगों में जाने लगे । महर्षि दयानन्द के ब्रह्मचर्य की महिमा सुनकर उनके ऊपर जादुई असर होने लगा और उनके अन्दर धीरे – धीरे जान आने लगी । आर्य समाज के सिद्धान्तों व सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ ने उन पर इतना प्रभाव डाला कि उन्होंने अपने आपको आर्य समाज के लिए समर्पित कर दिया और अच्छे कार्यों में सब जगह नजर आने लगे । उनके जीवन में आमूल चूल परिवर्तन आ गया था । उन्होंने महर्षि दयानन्द का जीवन चरित्र पढ़ कर तपस्या का मार्ग अपनाया ।
पवित्र विचार – प्रवाह ही जीवन है तथा विचार – प्रवाह का विघटन ही मृत्यु है । -राम प्रसाद विसिमल
1916 में भाई परमानन्द को फांसी की सजा हुई थी । उन्होंने “ तवारीखे हिन्द “ एक पुस्तक लिखी थी । बिस्मिल उसे पढ़कर बहुत प्रभावित हुए और प्रतिज्ञा की कि ब्रिटिश सरकार से इस अन्याय का बदला लेकर रहूँगा ।
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रामप्रसाद बिस्मिल ने सोचा कि ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए हमें हथियार चाहिए और इसे खरीदने के लिए धन चाहिए । अत : उन्होंने निर्णय लिया कि क्रांतिकारियों के साहित्य को छपवाकर अधिक से अधिक बांटा जाए ।
धन के अभाव के कारण Ramprasad Bismil व उसके साथियों ने ट्रेन से सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई और उसमें सफल हुए । यह घटना काकोरी काण्ड से पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है । उन्होंने 9 अगस्त , 1925 की शाम को काकोरी के निकट चलती रेलगाड़ी की जंजीर खींचकर रोक दिया और गार्ड के डिब्बे में रखा सारा खजाना लूट लिया । इसके लिए उन पर वारंट जारी कर दिया गया और उनकी खोजबीन शुरू हो गई ।
वे किसी तरह प्रशासन से आंख बचाकर लखनऊ की ओर प्रस्थान कर गए । शाहजहांपुर स्टेशन पर गाड़ी पकड़ने के लिए आए । पुलिस चौकन्नी थी । इनके जाते हुए पुलिस वाले ने कहा ; रुक जाओ । वरना गोली चला दूंगा । दरोगा आगे बढ़े और पूछा तुम कौन हो ? और कहां जा रहे हो ? इस पर बिस्मिल ने उत्तर दिया कि हम सब विद्यार्थी हैं और लखनऊ जा रहे हैं । पुलिस का शक दूर हो गया । उस रात मुसलाधार बारिश हो रही थी । जनवरी का महीना था । भीगा हुआ शरीर था । सर्दी से शरीर कांप रहा था । रातभर भीगते रहे परन्तु अपने इरादे से नहीं डगमगाए ।
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क्रांतिकारियों की खोज जोरशोर से जारी थी । लगभग एक महीने के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद को छोड़कर सभी संलिप्त क्रान्तिकारी पकड़े गए । लगभग डेढ़ वर्ष तक मुकदमा चला । रामप्रसाद , अशफाकउल्ला , रोशन सिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी को फांसी की सजा सुनाई गई ।
काकोरी काण्ड अपने आप में अद्वितीय घटना थी । इस काण्ड में लिप्त रामप्रसाद बिस्मिल को पकड़कर जेल भेज दिया गया । जेल के अन्दर पहरेदार व अन्य कर्मचारी उनके व्यवहार से अत्यधिक प्रभावित थे । उन्होंने जेल से भागने की योजना बनाई परन्तु उन्होंने सोचा कि पहरेदार के साथ विश्वासघात होगा और बेचारा वह फंस जायेगा । वे धोखेबाजी व बेईमानी के खिलाफ थे । बिस्मिल व उनके साथियों को फांसी देने की तारीख निश्चित कर दी गई थी वे नित्य जेल में हवन करते थे ।
उनका प्रसन्न मुख देखकर जेलर ने पूछा था कि तुम्हारा गुरु कौन है ? तब Ramprasad Bismil ने उत्तर दिया था कि जिस दिन उसे फांसी दी जायेगी , उस दिन वह अपने गुरु का नाम बतायेगा और ठीक ऐसा ही हुआ । जब बिस्मिल को फांसी दी जाने लगी तब जेलर ने वह बात याद दिलाई । तब बिस्मिल ने कहा था कि उसके गुरु हैं स्वामी दयानन्द । बिस्मिल ने अपने दोस्तों के नाम फरमान लिखा था – साथियों ! सबको मालूम है कि 19 दिसम्बर , 1927 को प्रात : 8 बजे मैं फांसी के फन्दे पर लटका दिया जाऊँगा । आज से मेरे जीवन की तीन रात बाकी है । उसके बाद मेरा शरीर दुनिया में विलीन हो जायेगा । परन्तु जन्म – मृत्यु परमात्मा के बनाये हुए अटल नियम हैं । मैं पुनः जन्म भारतवर्ष में ही लूंगा । मैं ईश्वर से हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ कि वो मुझे कई बार भारत मां की कोख से इस पावन धरा पर पैदा करे ।
विचारों की पवित्रता ही नैतिकता , आध्यात्मिकता व मानवता है । – राम प्रसाद विस्मिल
बिस्मिल हीरे की तरह कठोर और कमल की तरह कोमल थे । जब उनकी मां गोरखपुर की सैंट्रल जेल में फांसी देने से पहले मिलने आई तो रामप्रसाद आंसू नहीं रोक पाए । तब मां ने कहा , बेटा ! यह तुम क्या कर रहे हो ? मैं तो अपने सपूत को एक योद्धा मानती हूँ । यदि रोते हुए ही मौत का सामना करना चाहते हो तो फिर आजादी की लड़ाई में हिस्सा ही क्यों लिया ? यह बात सुनकर जेल के अधिकारी चकित रह गए । बिस्मिल ने कहा “ माँ , ये आंसू भय के आंसू नहीं हैं । ये हर्ष के आंसू हैं । तुम जैसी वीर माता को पाने की खुशी के हैं ये आंसू । ” 19 दिसम्बर 1927 को प्रात : 6.30 बजे गोरखपुर की जेल में ब्रिटिश सरकार के सबसे खौफनाक दुश्मन को फांसी पर लटका दिया गया । देश की जनता पहले ही गोरखपुर पहुंच चुकी थी ।
विचार सबसे बड़ी शक्ति व सम्पत्ति है । विचार विश्व की सबसे बड़ी ताकत है । विचार में अपरिमित बल व ऊर्जा है ।
बिस्मिल ने फांसी का फन्दा चूमने से पूर्व भारत माता की जय , वन्देमातरम् का उद्घोष किया । ईश्वर का ध्यान करते हुए वेदमन्त्रों का उच्चारण किया और कहा कि हे ईश्वर ! मुझे वर दो कि अंतिम सांस तक मैं तुम्हारा ही ध्यान करूँ तथा तुम में ही विलीन हो जाऊँ । फिर बिस्मिल ने अंतिम बार धरती माता को प्रणाम किया और मिट्टी का तिलक लगाया । फिर वन्देमातरम् कहते हुए वह फांसी के फन्दे पर झूल गए । एक बड़े जुलूस के रूप में उनकी शवयात्रा निकाली गई और गोरखपुर के नागरिकों ने वीर सपूत को विदाई दी । उनकी कुर्बानी ने देश की आजादी की लड़ाई को और भी तेज कर दिया । रामप्रसाद बिस्मिल एक क्रान्तिकारी लेखक और एक आदर्श देशभक्त के रूप में सदैव अमर रहेंगे ।
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