Guru Purnima Special – ब्रह्म और गुरु से हो एकाकार || Guru Purnima in Hindi
सच्चे गुरु की खोज करने निकले । गुरु मिल भी गया । लेकिन उससे सूत्र जुड़े तो कैसे ? शरीर , मन और विचार की सीमाओं से परे गुरु और शिष्य का संबंध ब्रह्म से एकहो जाने में है । सच्चा गुरुवही है , जो ब्रह्म में एकाकार हो चुका है । गुरु की बताए साधना पथ पर नियमित चलना जीवन में आत्मिक शांति लाता है ।
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Guru Purnima |
सब गुरु के जानकी अविरल धारा तदय में प्रवाहित हो सके , इसके लिए मन को सब विचारों से , सबत्तियों से , सब खयालों से , सब कामनाओं से , सब वासनाओं से खाली करना जरूरी है । अगर हदय सही स्थिति में हो , मन विचारों से खाली हो तो गुरु ही क्या , परमगुरु की कृपा भी मिलती है । अगर मन को पूरी तरह खाली कर ठहरा सको , तो आज तक संसार में जितने भी बुद्ध पुरुष हुए हैं , उन सभी महान आत्माओं का कृपा प्रसाद गुरु पूर्णिमा के दिन प्राप्त किया जा सकता है ।
शारीरिक रूप से गुरु के सामने उपस्थित रहना , उनको देखना , उनकी सेवा करना , यह भी एक सम्बंध होता है । गुरु से मन का सम्बंध भी बन सकता है । गुरु से प्रेम का , भावना का , श्रद्धा का सम्बंध बन जाता है । गुरु जो भी कहते हैं , उसे बुद्धि से जानना , समझना और जानते – समझते हुए बुद्धि को विकसित करलेना , इससे बुद्धि बहुत संस्कारी हो जाएगी । पर , गुरु से शरीर , मन और बुद्धि से सम्बंध जोड़ना कोई ऊंची बात नहीं है । शरीर अस्थायी है , मन बदल जाता है और बुद्धि का भी नाश हो जाता है । इसलिए यह सम्बंध बहुत दिनों तक नहीं चल सकता ।
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सद्गुरु से सच्चा सम्बंध वही है , जिसमें शिष्य गुरु से वहां जुड़ता है , जहां गुरुस्वयं जुड़ गए हों । अस्तित्व की पूर्णता में या कहो पूर्ण शून्यता में । अस्तित्व से एकाकार हो जाने के बाद शिष्य और गुरु दो नहीं रहते , एक हो जाते हैं । इस एकता का , इस एकत्व का अनुभव करने के लिए आवश्यकता है साधना की , समझ की , विवेक की , समर्पण की , श्रद्धा की ।
गुरुध्यानं तथा कृत्वा स्वयं ब्रह्ममयो भवेत् ।
पिण्डे पदे तथा रूपे मुक्तः सो नात्रा संशयः ।
‘ गुरुगीता ‘ का यह श्लोक कहता है कि जो गुरु का ध्यान करता है , वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है । क्या ब्रह्म और गुरु एक ही हैं ? हां , ये दोनों एक ही हैं , क्योंकि गुरु होता ही वही है , जिसने ब्रह्मानुभूति की है । ब्रह्मानुभूति करने वाला व्यक्ति ब्रह्म से जुदा नहीं रह जाता है । ‘ ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ‘ यानी जो ब्रह्म को जानता है , वह ब्रह्मरूप हो जाता है ।
परमात्मा को आप किसी वस्तु की तरह नहीं जान सकते । परमात्मा का मिलना तो ऐसे है , जैसे नमक की पोटली सागर में गई और सागररूप हो गई । नमक की पोटली सागर में जाने के बाद वापिस लौटकर बाहर नहीं आ सकती । वह तो अपना अस्तित्व खोकर सागर से एक हो जाती है । इसी तरह से जब परमात्मा की अनुभूति होती है , तो वह आपको और परमात्मा को एक कर देती है । हालांकि ‘ एक कर देती है ‘ , यह कहना भी उचित नहीं , क्योंकि सच तो यह है कि आप और परमात्मा दो नहीं हैं , एक ही हैं , एक थे और एक ही रहेंगे । लेकिन जिसको उस एकता का पता चल जाए , उसी को कहते हैं गुरु ।
याद रहे , जिसको उस ब्रह्म का अनुभव नहीं हुआ , उसके लाखों , करोड़ों चेले हो जाने के बावजूद , वह गुरु नहीं है।जो गुरु है , जिसने ब्रह्म का बोध किया है , ऐसे व्यक्ति के पीछे चाहे एक भी चेलान होया हजारों की भीड़ खड़ी हो जाए , वह अपने गुरुत्व से परिपूर्ण होता है । उसे अगर कोई पूछे कि ‘ आप किसके गुरु हैं और आपका शिष्य कौन है ? ‘ तो वह कहेगा , ‘ हम अपने ही गुरु हैं और हमारा मन ही हमारा शिष्य है । ‘
जिसका अपना मन ही उसका शिष्य नहीं हो पाया , वह किसी और को शिष्य क्या बनाएगा ? जिसका अपना मन अभी सोया हुआ है , वह किसी और को क्या जगा पाएगा ? वस्तुतः सच तो यह है कि जिसने अपने भीतर के गुरु यानी ज्ञानस्वरूप ब्रह्म की अनुभूति कर ली , वही गुरु हो जाता है ।
गुरु की नजर से देखें तो वह स्वयं भी ब्रह्म है और अपनी इस अवस्था में वह किसी को अपने से कम भी नहीं देखता है । जो अपने आपको दूसरों से बड़ा ज्ञानी और श्रेष्ठ समझता है , वह गुरुतो हो ही नहीं सकता । जिसको सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो गई है , जो सद्गुरु पदवी पर स्थित हो गया है , वह कोई विकारयुक्त व्यवहार नहीं कर सकता , कोई आडम्बरया पाखंड नहीं कर सकता ।
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भगवान कृष्ण ‘ गीता ‘ में कहते हैं कि ब्रह्म की प्राप्ति कर लेने के बाद भी ब्रह्मज्ञानी को चाहिए कि वह ऐसा व्यवहार करे , जिससे दूसरे लोग सीख पाएं । जो अपने भीतर समाधि को प्राप्त हो गया , जो अपने भीतर बोध को प्राप्त हो गया , अब उसे कोई जरूरत नहीं कि वह मंदिरों में जाकर घंटियां बजाए , माला जपे या कुछ और करे , पर वह फिर भी सब कुछ करता है , क्योंकि उसे मंदिर जाते देखकर जो नहीं जाते हैं , वे भी जाएंगे और जब जाएंगे तो ही भीतर सत्संग का प्रेम जगेगा । फिर धीरे – धीरे वह सत्संग सुनने लगेगा और उसके भीतर परमार्थ मार्ग पर चलने की इच्छा जागेगी ।
एक जलते हुए दीपक के बहुत पास एक अनजले दीपक को रख दो , तो जलते हुए दीये की ज्योति अनजली बाती पर छलांग मारकर पहुंच जाएगी । ठीक ऐसे ही गुरु की ब्रह्मानुभूति शिष्य के पास पहुंचजाती है । इसीलिए कहा गया है कि गुरु के सान्निध्य में रहो । अगर पूरा समर्पण का भाव है , यदि तुम्हारे इस शरीररूपी दीये में श्रद्धा का तेल और साधना की बत्ती है , तो ज्योत जलेगी ही ।
गुरु पूर्णिमा वाले दिन लोग गुरु की पूजा करते हैं , फल – फूल तथा धन – पैसा चढ़ाते हैं , पर गुरु शिष्य से पूजा नहीं , साधना के प्रति उसका समर्पण चाहता है । जो समर्पण नहीं करेगा , जो अपने भीतर अहंकारको बनाए रखेगा , जिसको साधना में कोई रुचि नहीं है , ऐसे चेले का क्या काम ! सद्गुरु ने दयापूर्वक रास्ता बता दिया है , अब इस रास्ते पर चलते रहना आपके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए ।
जो नियमित रूप से साधना करते हैं , उनको अपने भीतर गुरु की प्रतीति अवश्य हो जाती है । वे गुरु कृपा पाते हैं , चेहरे पर ध्यान की शांति होती है और जीवन में ध्यान का आनंद , ज्ञान का विवेक होता है ।
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